वृक्ष बनने के लिए बीज को मिटना ही पड़ता है। यदि बीज न मिटने की ही शर्त और अहंकार पर टिका रहे तेा कभी भी वृक्ष नहीं बन सकता। दूसरा सूत्र में और मेरा का स्वार्थ/भावना ही व्यक्ति को संकुचित बनाती है।
वर्तमान में राजनीति भी इन्हीं दो सूत्रों के ही इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है। परिणामस्वरूप पिछड़ा एवं बिखराव ही सामने आ रहा है। आज राजनीति में नीति और निःस्वार्थ दोनों ही कब के ही विदा हो चुके है। आज हर राजनीतिक पार्टी इसी से जूझ भी रही है और जितना गिर सकते है उससे भी ज्यादा गिरा जा रहा है। ईमानदारी बची नहीं और चालबाजी और कलाबाजी ही आज सभी का मूल मंत्र बनकर रह गया है।
मध्यप्रदेश का ताजा राजनीतिक घटनाक्रम इन दो मूल सूत्रों का ही उदाहरण है, बुजुर्ग राजनेता हटना नहीं चाहते और युवा दबना और रूकना नहीं चाहता। कुछ चीजें हमें प्रकृति से भी सीखना चाहिए। बसंत ऋतु में पुराने पत्तों का गिरना और नई कोपल पत्तों का आना यह परिवर्तन प्रकृति का नियम भी है। आज युवा अपने को कुंठित सा महसूस कर रहा है, युवा रोके रूकता नहीं बल्कि वह स्वयं ही अपना मार्ग बदल लेता है।
ऐसी स्थिति में विद्रोह होना बड़ा ही स्वभाविक है और जो वर्तमान में पारलक्षित भी हो रहा है। कांग्रेस क्षितिज पर ज्योतिरादित्य सिंधिया भी एक ऊर्जावान एवं चमकता सितारा रहे हैं। मध्यप्रदेश की जनता अच्छी तरह से गवाह है। भाजपा के विगत् 15 वर्षों में यदि किसी ने शिद्दत से पार्टी की लड़ाई लड़ी तो वह भी सिंधिया ही है, उन्होंने सभी वर्ग के लोगों की न केवल लड़ाई लड़ी, बल्कि सभी के चहेते भी रहे, उनका यही जुझारूपन जनता को भी भाया है। यह एक स्वभाविक क्रिया भी है जो श्रम करता है वह फल देखना भी चाहता है और यह हो भी क्यो न लेकिन लगातार मिलने वाली उपेक्षाऐं कई बार अच्छे-अच्छों का भी मनोबल तोड़ देती है। निःसंदेह जीवन में कई बार ऐसे भी क्षण आते हैं जब व्यक्ति या तो आत्म परिवर्तन करता है या आत्मघात? सिंधिया का भी वह शिखर बिन्दु आ गया था और आत्म परिवर्तन की और बढ़े। भाजपा की सदस्यता लेने के समय उनकी बाॅड़ी लेंग्वेज पर यदि गौर किया जायें तो एक भारी मत से नये रूपांतरण में अन्तःकरण की पीड़ा की स्पष्ट झलक देखी एवं पढ़ी जा सकती है लगा कोई प्रिय बिछुड़ गया। भावनाओं के धागों की टूट की पीड़ा भी स्पष्टतः झलकी।
अब यहाँ कई यक्ष प्रश्न उठ खड़े होते हैं, मसलन कांग्रेस नेतृत्व से कहाँ चूक हुई? ध्यैय की परीक्षा या विनाशकाले विपरीत बुद्वि भी, प्रबंधन की कमी थी या समझ की, इस स्थिति की आशा भी थी या नहीं थी, मित्र कड़वा भी कहता है लेकिन चाटुकार कभी नहीं, हो यह भी नहीं भूलना चाहिए। हीरा सदा हीरा ही रहता है, जोहरी ही उसको परखता है बाकी तो कांच ही समझ फैंक देते हैं। निःसंदेह जब कोई भी व्यक्ति नजरों के अति निकट रहता है तो हमें स्पष्ट दिखाई भी नहीं देता, स्पष्ट देखने के लिए कुछ दूरी भी अति आवश्यक है। कई बार अति अहंकार में भी दिखाई नहीं देता। हमारे धर्म ग्रन्थों में ऐसे अनेकों उदाहरण है फिर बात चाहे बाली-सुग्रीव की हो, रावण की हो, महाभारत में भगवान की कृष्ण के शांतिदूत के रूप में पाण्डवों के लिए पाँच गावों के मांगने की हो।
इतिहास गवाह है अहंकार ने कभी किसी का भला नहीं किया। स्वयं नष्ट करने के सिवाए। सही समय, स्थिति, परिस्थिति पर जिसने भी निर्णय लिया वही सिकंदर हैं।
शशि फीचर.ओ.आर.जी. ं लेखिका सूचना मंत्र की संपादक हैं
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